LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

मंगलवार, 31 मार्च 2009

आओं इस लूट में शामिल हो जाओ



जी हाँ! मेहरबान ..कदरदान ...मेजबान ... आइये ..इस खुली लूट में आप भी शामिल हो जाइये ...क्या कहा आपने ....आप शरीफ है ... और आप ..अच्छा... आप खानदानी है... और आपने क्या कहा ज़नाब ... वो तो आप फालतू बातों पे ध्यान नहीं देते ...वाकई ! मज़ा आ गया यहाँ तो सभी समझदार लोग है ...क्या कहा आपने यहाँ कोई लूट नहीं है ..मैं बकवास कर रहा हूँ ..अरे नहीं मेरे भाई जरा गौर से देखिये ..आज हमारा सरकारी खजाना खाली हो जायेगा क्योंकि आज ३१ मार्च है...सरकारी खजाने की लूट मची है ..आइये शामिल हो जाइये ..कोई भी बिल पास करा लीजिये, क्या कहा आपने ..आप ठेके का काम पूरा नहीं कर पायें और आप सड़क का .. अपने विभाग का.. शिक्षा का..वगैरह- वगैरह कोई भी काम पूरा नहीं कर पाए.. कोई बात नहीं यहाँ कागजों पर पूरा कर ले, भुगतान मिल जायेगा बस हुजुर मेरा ध्यान रखियेगा ...मेरा कमीशन..... ठीक है समझ गए न ..हाँ तो भाइयो लूट लो ...लूट लो ..क्या कहा आपने मैं गन्दा आदमी हु मेरे विचार गंदे है ..तो भैया ज़रा अपने गिरेबान में झांक कर तो देखो जब सड़कों की मरम्मती के नाम पर मिटटी भरे गए थे, अच्छी सड़कों को तोडा जा रहा था, तालाब के नाम पर तालाब बनी ही नहीं थी, हर मार्च पर सड़के बनती है और एक ही बरसात में टूट जाती है तो देख कर भी आप चुप क्यों रहते है, विरोध क्यों नहीं करते आपकी मौन उनके हौसलों को बढाती है ...गिनती के चंद लोगों की लूट में हमारा चुप रहना उसकी लूट में हमारी मौन सहमति है ..आइये ज़नाब ..मुहं खोलिए कुछ तो बोलिए विरोध नहीं कर सकते तो कम से कम चिल्लाइये तो ...या फिर १ अप्रैल को मुर्ख बन फिर से लूटने की तैयारी कीजिये

बुधवार, 25 मार्च 2009

हारा हुआ सेनापति

मैं एक हारा हुआ सेनापति हूँ ,आप हैरान हो गए...आप सोच रहे होंगे की हारता तो सिपाही है,सेनापति तो सिर्फ जीतता है क्योंकि जीतने का सेहरा सेनापति के गले होता है और हार हमेशा सैनिकों कि होती है .........मुझ हारे हुए सेनापति कि एक आपसी मानसिक युद्ध में एक टांग या फिर यूँ कहे कि एक पैर टूट गया ........आप तो जानते ही है कि हर आदमी ..नहीं यहाँ आदमी कहने से किसी को दुःख हो सकता है ..अतः मनुष्य कहता हूँ ...इसमें भी मनु का नाम आने से किसी को तकलीफ हो सकती है ...अतः क्षमा मांग लेता हूँ क्योंकि मैं अल्पकालिक अपाहिज हूँ ....हाँ तो मैं कह रहा था कि लोगों कि तरह मेरे भी दो पैर है जिससे मैं चलता हूँ, मेरे दोनों पैर मेरे शरीर के बोझ को उठाकर जहाँ मेरा मष्तिष्क कहता है वहां ले जाता है इसमें मेरे पैरों को गुलामी का अहसास नहीं होता ना हीं मेरा मष्तिष्क अपने को मालिक समझता है ....... चूँकि मेरे दो ही पैर है अतः मैंने इसका नामांकरण कर रखा है एक जिसे आप बायीं तरफ वाली या फिर दायीं तरफ वाली जिसे देखने में सुविधा हो उसे मैं सकारात्मक और ठीक इसके विपरीत दायीं तरफ वाली या फिर कहें बायीं तरफ वाली जिसे आपके देखने का कोण समझ में आता हो नकारात्मक नाम दिया... अब हुआ क्या कि एक दिन हमारी मानसिक युद्ध में मष्तिष्क का फयुज़ थोडा ऑफ हो गया और मेरा एक पैर टूट गया ..अब चूँकि बेचारा मष्तिष्क फयुज़ था अतः जब ठीक हुआ तो कन्फ्यूज़ हो गया कि टूटा हुआ पैर सकारात्मक था या फिर नकारात्मक .... खैर छोडिये ये तो मेरे मष्तिष्क का प्रॉब्लम है ....आपका मष्तिष्क ...आपकी सोच तो ठीक है ...अब आगे आप खुद ही तय कर लीजिये कि मेरा पैर कौन सा टूटा था ..और हाँ मेरे टूटे पैर पर इतना भी मग्न ना हो जाइयेगा कि आप भी लंगडाकर चलने लगे जैसा कि मेरे साथ हुआ .. अब पैर टूटा तो ज़ाहिर है की मैं डाक्टर के पास जाऊंगा ..मैं वहां गया तो पता चला की पैर की हड्डी टूट गयी है ,मैं समझा नहीं ...हम तो ठहरे देहाती मैं सोच रहा था की पैर टूट गया लेकिन यहाँ पता चला की पैर की हड्डी टूट गयी है ..अब ये पैर की 'हड्डी' क्या होती है मेरी समझ में नहीं आया और मैं सोचता ही रहा की न जाने कब मेरे पैर पर मोटी प्लास्टर की परत चढ़ा दी गई अब मेरा एक पैर दुसरे पैर से थोडा भारी हो गया था मेरे नकारात्मक या फिर सकारात्मक पर एक मोटी सी परत चढ़ गई थी ,सभी को यह परत दिखाई पड़ रही थी और हाल समाचार पूछ बैठते की भई!! कैसे पैर टूटा ....अब क्या करे मैं किसी फिल्म की तरह रिप्ले करके तो दिखा नहीं सकता लिहाज़ा मुँह से बता दिया करता था कई दिनों का यह सिलसिला रहा तो मुँह ने भी घटना का बयाँ करना बंद कर दिया सिर्फ एक हँसी (खोखली या व्यंग्यात्मक, मुझे नहीं पता था परन्तु खुल कर हँसी नहीं थी )हंस देता, सामने वाला भी समझदार .. समझ लेता था परन्तु मेरे दोनों पैर एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक समझने को तैयार हीं नहीं सकारात्मक आगे बढ़ना चाहता तो मोटी परत वाला नकारात्मक उसे बढ़ने नहीं देता क्योंकि एक तो टूटा हुआ दूसरी उस पर चढ़ी मोटी परत दोनों पैर के चलने का संतुलन नहीं बना पा रही थी मेरे शरीर का बोझ अब अकेले किसी एक को उठाना था, दूसरा चुपचाप आराम फरमाता .... डाक्टर की भी सलाह थी की घर पर ही आराम करे कहीं चलने की जरुरत नहीं है ..पर मैं ठहरा आदमी जात मेरी नैसर्गिक कुछ जरुरत थी जिसे पूरा करने के लिए कुछ कदम चलना ही पड़ता पर यह क्या मेरे सकारात्मक और नकारात्मक ने तो मुझे 'जड़' ही कर दिया दोनों में कोई एक तो ठीक था जो मेरी बोझ को अकेला उठा सकता था, लंगडा कर ही सही, घसीट कर ही सही ..पर नहीं .. दोनों चुप .. दोनों को सौतिया डाह हो गई, तब मेरे मष्तिष्क ने काम किया मालिक का आदेश गुलाम क्यों नहीं सुनेगा.. बस फिर क्या था सकारात्मक उठ खडा हुआ अपने बल पर, नकारात्मक को सहारे लेकर धीरे-धीरे परन्तु लम्बे डग लेकर एक बैसाखी के सहारे नैसर्गिक ज़रूरत के लिए चला .... मैं सोच रहा था की दुनिया कितनी तरक्की कर ली है, यदि कहीं कोई ऐसी रिंच होती की मेरे नकारात्मक या सकारात्मक जो पैर ख़राब हो उसे अपने शरीर से कुछ समय के लिए अलग कर लेता परन्तु ..... शायद ऐसी कोई रिंच अभी तक अमेरिका वालों ने भी अभी तक नहीं बनायीं है न ही चीन ने ..शायद मंदी की मार में अभी वे बना भी नहीं पाएंगे. धीरे-धीरे समय बीतते चला गया मेरा नकारत्मक या सकारात्मक ठीक होता चला गया पैर की टूटी हड्डी धीरे-धीरे जुड़ने लगी और अब सकारात्मक या नकारात्मक एक दुसरे के सहारे एक दुसरे के दर्द को झेल कर, कभी तेज़ तो कभी धीमी गति से चलने लगे कुछ ही दिनों में डाक्टर की लगाई मोटी परत नर्स ने काट दी मेरे सकारत्मक या नकारत्मक बिना किसी परत के थे परन्तु प्लास्टर होने से लगा दाग दिखाई दे रहा था मुझे पता था की कुछ दिनों में प्लास्टर के दाग मिट जायेंगे परन्तु नकारात्मक या सकारत्मक जब भी साथ चलेंगे अच्छी गति से चलेंगे, संतुलन में रहेंगे परन्तु किसी मोड़ पर सकारात्मक या नकारत्मक को दर्द होगा तो पैर टूटने की घटना याद हो जायेगी, याद हो जायेगी वो लंगडाकर चलना, एक दुसरे के सहारे आगे बढ़ना और ना चाहते हुए भी मेरे शरीर के बोझ को उठा कर चलना .....
धन्यवाद्

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

"संस्कृति"

संस्कृति मूलत: ग्रहण की जाती है जो एक पीढी से दूसरी पीढी तक स्वत:ग्रहित होती चली जाती है
मानव अपने उदभव काल से अब तक अपने जीवन पथ में कार्यों की कुशलता को ग्रहण करता हुआ उसे विशेष आकार, विशेष रूप प्रदान करता रहा है जिसे आने वाली पीढी उसे ग्रहण करती रही है, समय के बीतने के क्रम में समाज में बदलाव एवं नवीनतम वस्तुए मूर्त-अमूर्त का ग्रहण सर्वोपरि है वस्तुतः संस्कृति अदृश्य होने के बावजूद चलायमान है समाज के नवीनतम ग्रहणों का प्रभाव संस्कृति पर पड़ता है
नवीन काल चक्रों के संस्कृति पर पड़े प्रभाव की वज़ह से हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए की उसका स्वरुप बदल जायेगा क्योंकि संस्कृति के स्वरुप में बदलाव नहीं आता उसमे आधुनिकता का समावेश हो सकता है परन्तु उसका स्वरुप वही पुरातन होगा
लोक संस्कृति वास्तव में संस्कृति का ही रूप है जो किसी सम्पूर्ण राष्ट्र की संस्कृति नहीं बल्कि प्रान्त या क्षेत्र-विशेष की संस्कृति यानि क्षेत्र- विशेष का रहन-सहन, पहनावा, बोल-चाल, खान-पान, उस क्षेत्र- विशेष का पर्व, उनकी कार्य शैली, उनके जाति विशेष का लगाव है.
किसी भी राष्ट्र की विशेष संस्कृति उनके क्षेत्र के भौगोलिक वातावरण के प्रभाव से बनती है. जो अलग-अलग क्षेत्र में अलग होती है. मैदानी क्षेत्रों की संस्कृति,पर्वतिये क्षेत्र की संस्कृति, सीमा प्रान्त की संस्कृति, समुन्द्र तटीय संस्कृति, नदी क्षेत्र की संस्कृति सभी एक दुसरे से मिली होगी और एक दुसरे से इसमें संमिश्रण भी देखने को मिलेगा क्योंकि हम जानते है की संस्कृति ग्रहण करने का नाम है और यह स्वत ग्रहण होती है तथा आसानी से सीखी जाती है.यही भिन्न-भिन्न संस्कृति लोक संस्कृति की संज्ञा प्राप्त करती है जिसके अंतर्गत उस क्षेत्र की कला, कहानी, नृत्य, नाटक, संगीत, आदि का विशेष प्रभाव होगा उसकी शैली की भिन्नता होगी जो उसकी विशेष पहचान बनती है

बुधवार, 11 मार्च 2009

अपनी होली


होली खेलने के रंग है निराले


कोई अपने ही गालों पे रंग डाले


कोई दूसरो के गालों पे रंग उडाले


फागुन में बुढ़वा बौराया


रंग डालने भौजी को दौडाया

थक गया, हाफ़ते-हाफते


दांते निपोर बोला


बुरा न मानो होली है


लड़को की टोली निकली

गाजे-बाजे के साथ


शेरों-शायरी और ...




होलियाना मूड के गानों पर


थिरकते युवा कदम


जिनकी है


अपनी ही एक अलग रंग


अरे.....


भागो... दौडो ......
पकडो .....


अरे रंग डालो ...


बुरा न मानो होली है
नाचे हर कोई अपनी ताल पे


रंग लगावें दूसरों की गाल पे


कपडा दिया फाड़


चिल्लाकर बोलें
बुरा न मानो होली है


खन्ना साहब बैठे घर पे
आयें रंग लगाने दो-चार



खन्ना बोले


यार


अपनी होली तो


महंगाई के रंग में


'हो' 'ली' है


महंगाई के रंगों में


हमने खूब खेली होली


नेताओं के आश्वाशन को


पुआ-पकोड़ी समझ खा ली


तुम्हारे रंगों का असर तो


कुछ घंटों का है


महंगाई का रंग तो भैया


छूटाये नहीं छूटेगा


वायदा कर गया है


फिर से आने का


न जाने


फिर कौन सा


गुल खिलाएगा


बुरा न मानो होली है









महंगाई और होली


महंगाई के रंग ने
कपड़े डालें फाड़
बची
लंगोटी
छिपाई
इज्ज़त
पर बोली महंगाई
कहाँ भागते हो भाई
मेरी नज़र है
तुम्हारी लंगोटी पर
अगली होली
फ़िर आऊंगा
इसको भी
उतार कर
ले जाऊंगा






मंगलवार, 10 मार्च 2009

हम किसी से कम नहीं

प्यास हमें भी लगती है भाई ....